गुटूर-गुटूर, खट-खट की आवाज से मेरी नींद खुली। हॉस्टेल मी मेरा पहला ही दिन था। नयी जगह होने के कारण रात मे भी बडी मुश्किल से आँख लगी थी। खिडकी खोल कर देखा तो एक कबूतर खिडकी की कांच को चोंच मार रहा था। सुबह की मेरी गहरी नींद मे खलल डालने वाले उस कबूतर को मार डालने कॊ जी कर राहा था। पर क्या करती, वह कोई इन्सान तो था नही कि उसपर अपना गुस्सा उतार पाती। पंछी था, उड गया। पर बात सिर्फ यही पर रुकती तो न्! उस कबूतर का मेरी सुबह की नींद खराब करने का सिलसिला सा ही शुरु हो गया था। हफ्ते भर बाद तो मेरे डरावने सापनों मे भी कबूतर आने लगे थे। हर सुबह मै उसे भगाने की कोई तरकीब सोचा करती थी। पर शाम तक भूल भी जाती थी। कबूतरों के प्रति मेरी नफ़रत बढती ही जा रही थी।
कुछ समय बाद सर्दीयां शुरु हो गयी। मेरी खिडकी के सामने का छज्जा काफ़ी बड़ा था, जहाँ बैठा जा सकता था। वहा बैठकर रात की ठन्ड मे गरमा गरम कॉफी की चुस्कीया लेते हुए मैं दूर दूर तक की लाइटे घंटों तक ताका करती थी। जिंदगी मे कई दफ़ा इन्सान सिर्फ अकेलापन चाहता है। मेरी कभी कोई ऐसी दोस्त नही थी जिसके साथ मैं बस युंही घंटों तक निशब्द बैठी रहू। एक दिन मुझे लगा कि क्यूँ न मैं एक पौधा लगाऊं जिससे मैं बाते कर सकूं और जो मेरा मित्र बने। मैने बडे शौक से मोगरे का पौधा लगाया। पर हफ्तें, दो हफ्ते ही हुए होंगे के कबूतर ने उसके सारे पत्ते और फूल चोंच से कांट डाले। ऐसे प्रतीत हो रहा था मानो उसकी कोई पुरानी दुश्मनी हो मुझसे। उस दिन मैंने ठान लिया कि मेरे पौधे पर उसका साया भी नही पडने दुंगी। मैंने दूसरा पौधा लगाया और कुंडी कि मिट्टी मे सुईयां गाँड दी। और जहाँ-जहाँ वह बैठ सकता था वहा भी सुईयां टेप से चिपका दी। पर कोई तरकीब काम नही कर रही थी।उसने मेरी खिडकी में अपना घर बना लिया था। रोज रात को वह मेरी खिडकी मे आके बैठ जाया करता।सुबह अपनी गुटूर गुटूर से मुझे नीन्द से उठाया करता। रात मे अपने पंख फडफडाया करता। उसकी आवाज से रात मे मुझे डर लगने लगा था। लेकिन एक दिन हिम्मत करके मैने उसे भगाने की ठान ली। हाथ मे झाडू लेकर मैने खिडकी खोली। लेकिन उसपर नजर पडते ही मेरा ह्रिदय अतीव करुणा से भर गया। ठन्ड की वजह से वह ठिठूरकर बैठा हुआ था। ऐसे लग रहा था मानो दिनभर उधम मचाने वाला कोई मासूम सा बच्चा अपनी माँ के आँचल मे मुंह छुपाकर सो रहा हो। खूदकी क्रूरता पर शर्म सी महसूस हुई।और मैने अपनी खिडकी मे उसके अशियाने का अस्तित्व मान लिया।
अब मैं खिडकी मे बैठने वाली अकेली नही रही थी। मेरे साथ मेरा मित्र था। किसी के हामेशा साथ होने का एहसास भी कितना पुरसुकून होता है। अब उसके पंख फ़डफ़डाने से डर नही बल्कि उसके साथ होने का एहसास होता था। वह रात भर अपने आशियाने मे सिकुडकर बैठा रहता। और सुबह मैने पौधे मे डाला हुआ पानी पी कर चला जाता। हम दोनों ने एक दुसरे के अस्तित्व को मान लिया था।उसकी बैठने की जगह पर मैंने फिर कभी कपडे नही सुखाए। और उसने भी मेरे पौधे को फिर कोई नुकसान नही पहूंचाया। वह पहला ही जीव था जिसे छूकर सहलाने का मन करता था। लेकिन कुछ चीजों का, कुछ लोगों का जिंदगी से चले जाना तय होता है। वो बस पीछे छूट जाते है। उनके बिछडने की पूर्वकल्पना होने के बावजूद हम उनके लिये व्याकुल हो जाते है। मेरी कोर्स खत्म हो गयी थी; मुझे रूम छोडकर जाना था। मैने रूम खाली कर दिया। बहुत चाहती थी कि उसे अपने साथ ले जाऊं। पर उससे बिछडना तय था।
कई बार सोचती हु कि क्या करता होगा अब वह? उसे पानी कौन पिलाता होगा? क्या उसे भी मेरे प्रति लगाव हो गया था? और क्या-क्या नही! हर रोज उम्मीद लगाकर बैठती हूं कि क्या वह मेरी नयी खिडकी मी आयेगा? पर कुछ रिशते शायद कुछ वक्त के लिये ही बने होते है। खोखली उम्मीद गम का सबब बन जाती है। अब शायद मेरी उससे कभी मुलाकात ही ना हो! या फिर दिख भी जाये मुझे वह कहीं तो वह मुझे पहचाने ही ना! कितनी अजीब बात है ना! हम फिर से अजनबी बन गये है।
- रोहिणी गायकवाड (छत्रपति संभाजी नगर , महाराष्ट्र)